भारतीय मूर्ति - कला 


                                                                                     
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भारतीय मूर्ति - कला


                   हमारे देश में अधिकांश लोग मूर्ति पूजक है तभी तो कोई शिवजी की प्रतिमा का तो कोई गणेशजी की मूर्ति का पूजक है , ऐसे ही हम मूर्ति पूजक जरूर है परन्तु इन मूर्तियों की उत्पत्ति , उनका विकास कब और कैसे हुआ इस सत्य से हमारी जिज्ञासा को हम जानने के लिए कभी नहीं चाहते , बस मूर्ति पूजा करनी है करते है।  

                      खैर , हमारी इस जिज्ञासा को पूर्ण करने के उद्देश्य से प्रकाशित भारतीय मूर्ति कला पुस्तक बहुत ही उपयोगी है। पुस्तक के लेखक श्री . राय कृष्णदास ने इस पुस्तक में मूर्तियों की उत्पत्ति , उनके प्रकार आदि सम्बन्धी विस्तार से सरल भाषा में वर्णन किया है, जो हमारी जिज्ञासा को शांत करते हुए वास्तविकता का परिचय देने में सहायक है। 
                     श्री . राय कृष्णदासजी के अनुसार सोना , चांदी , तांबा , कांसा , पीतल , अष्टधातु अदि सभी प्राकृर्तिक तथा कृत्रिम धातु आदि से हुई आकृति को मूर्ति कहते है।  जब हम मूर्ति की पूजा करते है , वस्तुतः मूर्ति का उद्देश्य कहीं व्यापक है। ई. पू . १० वीं १२ वीं सहस्त्राब्दी से २ री   सहस्त्राब्दी तक  मानव सभ्यता का विकासक्रम , जो प्रायः दस बारह हजार वर्ष पूर्व से या उसके भी पहले से चलता है , इस प्रकार मिलता है जैसे प्रारंभिक प्रस्तर युग , विकसित प्रस्तर युग , ताम्र युग , कांस्य युग तथा लोह युग है।  भारत की सबसे प्राचीन मूर्तियां सिंध काठ के मोहनजोदड़ो और हड़प्पा के प्राचीन नगरों के ध्वंसावशेष  में मिली है।  इसके अलावा भारत में अब तक ऐतिहासिक काल की जो सबसे पुरानी  मूर्तियां मिली है , वे मगध के श्याशुनाक वंश [ ७२७ -३६६ ई .पू .] के राजाओं की है।  उक्त  श्याशुनाक  मूर्तियों में भी सबसे पुरानी मूर्ति अजातशत्रु की है। 

                     इसी तरह की बहुत सी जानकारी श्री . राय कृष्णदास जी ने हमारी जिज्ञासा के लिए भारतीय मूर्ति कला पुस्तक मेकइन  में सिमट कर रखी है।  उन्होंने अपनी इस पुस्तक में चार अध्यायों में संक्षिप्त रूप से लिखा है , जिसमे पहले अध्याय में परिभाषा के अलावा प्रागैतिहासिक काल , मोहनजोदो , वैदिक काल , श्याशुनाक तथा नन्दकाल व मौर्यकाल  है।  दूसरे अध्याय में शुंगकाल , साँची , भरहुत , कुषाण -सातवाहन काल , गांधार शैली , अमरावती तथा नागार्जुनकोंडा है।  तीसरे अध्याय में नाग [ भारशिव ] वाकाटक काल , गुप्तकाल , पूर्वमध्यकाल।  चौथे व अंतिम अध्याय में उत्तरमध्यकाल १४ वी शती के आरम्भ से अर्वाचीन काल तक उपसंहार शामिल है।     
                          श्याशुनाक वंश के बाद मगध में नन्द वंश का साम्राज्य हुआ। यह वंश बहुत अत्याचारी हो उठा था। चाणक्य के पथ प्रदर्शन में चंद्रगुप्त मौर्य ने इस अत्याचार से राष्ट्र का उद्धार किया और मौर्य राजवंश की स्थापना की। 
                           मौर्यो  के बाद का राजनैतिक इतिहास बड़ा उलझा हुआ है।  साँची इस युग के सबसे प्रधान मूर्तिकला के नमूने साँची के अशोक कालीन बड़े स्तूप के चारों दिशाओं वाले तोरण और उसकी परिक्रमा की दोहरी वेदिका है यह भारी प्रस्तरशिल्प सातवाहनों का बनवाया हुआ है। 
                           भरहुत - शम्भुकालीन मूर्तिकला में साँची के बाद भरहुत का स्थान है।  यह जगह इलाहबाद और जबलपुर के बीच में नागोद राज्य में है। कृषाण - सातवाहन काल मध्य एशिया में जातियों की उथल पुथल के कारण शकों का , जो आर्य ही थे किन्तु तब तक जंगली और  अनिकेत थे , एक प्रवाह भारत की ओर आया और उसमे सिंध प्रांत पर अधिकार कर लिया। 
                              गांधार शैली इस काल में गांधार और उसमे मिले हुए पश्चिमी पंजाब में एक ऐसी मूर्ति शैली का विकास हुआ जिसका विषय सर्वथा बौद्ध है और सरसरी निगाह से देखने में , शैली सर्वथा यूनानी लगाती है। इस शैली की पचासो हजार मूर्तियां प्राप्त हो चुकी है। 
                              मथुरा शैली - गांधार की भांति मथुरा भी कृषाण काल में एक बहुत बड़ा मूर्ति केंद्र था।  इस प्रकार मथुरा शैली पर कहीं से यूनानी प्रभाव नहीं पाया जाता। 
                                अमरावती तथा नागार्जुनकोंडा जिस समय उत्तरी भारत में गांधार शैली का और कुषाण - कालीन मथुरा शैली का दौर था उसी ज़माने में दक्षिणी भारत में एखाद बड़े ही महत्वपूर्ण प्रस्तर शैली का निर्माण हो रहा था।  गुंटूर जिले में कृष्णा नदी के किनारे अमरावती नामक जगह है।  यहां पर २०० ई . पू . में एक विशाल बौद्ध स्तूप बनाया गया था। 
                                 गुप्तकाल - समुद्रगुप्त जैसा बड़ा विजेता था वैसा ही सुशासक भी था।  कला और संस्कृति का भी वह बहुत बड़ा पोषक और उन्नायक था।  वह स्वयं बीन बजता था और कविता करता था।  गुप्त मूर्तिकला वाकाटक मूर्तिकला की ही परम्परा में है किन्तु गुप्त इतने सक्रीय थे की उस काल की समूची कलाकृति पर चाहे वह गुप्त - साम्राज्य में रही हो चाहे वाकाटक साम्राज्य में। 
                                   पूर्वमध्यकाल - इस काल में गुप्तकाल की अनेक विशेषताएं विद्यमान रहती है किन्तु इसका सबसे बड़ा निजस्व यह है की इसमें घटनाओ के बड़े बड़े दृश्य अंकित किये जाते है।  जैसे गंगावतरण के लिए भगीरथ की तपस्या , दुर्गामहिषासुर युद्ध , रावण का कैलास - उत्तोलन , शिव का त्रिपुरदाह इत्यादि।  इस कारण कुछ मर्मज्ञों के मत से भारतीय मूर्तिकला का सर्वश्रेठ काल यही है।  
                            हमारी मूर्तिकला , जिसमे हमारी युग युग की संस्कृति और आध्यात्मिकता के सन्देश  भरे पड़े है और जो संसार के हजारों कोस में फैली हुई है।  आज हमारी उपेक्षा की वस्तु हो रही है। हमारा कर्तव्य है कि उसे समझे , उसका संरक्षण करें और उसे पुनर्जीवित करें।