[ कहानी]
नुरुल के घर आज सवेरे ही जोर-जोर से रोने धोने की आवाजें आने लगी। इस आवाज से आस पड़ोस के लोग अपने-अपने घरों के दरवाजे खोलकर हैरत भरी निगाहों से नुरुल के घर की ओर देखने लगे, कुछ उत्साही पडोसी अपना काम छोड़ उसके घर की ओर लपके भी। तब सबको पता चला की रात तक अच्छा खासा घूमने फिरनेवाले नुरुल ने नमाज के पश्चात ही इस दुनिया को अलविदा कर दिया है। उसकी पत्नी रेहाना तथा बेटी नूरीन का रो-रो कर बेहाल हो गया था। यह समाचार जंगल की आग की तरह सारे मोहल्ले में फ़ैल गई। अनायास ही सबकी आँखों में आंसू तैरने लग गए।
अपने अल्प वेतन में भी सबके काम में हाथ बटानेवाले नुरुल के घर लोगों की भीड़ जमा होने लगी। भीड़ में हर कोई नुरुल की मौत से दुखी था।
किसी ने आकर नदीम को बताया की "नदीम भाई तुम्हे अम्मी बुला रही है।" नदीम भीतर जनानखाने की ओर मुड़ा। तब उसकी अम्मी ने पूछा-"नदीम, क्या आपा को तुमने इत्तेला दी है? , वे अभी तक क्यों नहीं पहुँची?" नदीम अपनी फूफी को ही इत्तेला देने भूल गया था, अपने अब्बा की एकलौती चहेती बहन को। नुरुल की आपा नए शहर में रहती थी। आने जाने घंटा भर लग जाता था। नदीम को याद आया की अपनी फूफी के घर फ़ोन है, तब उसने आज पहली बार अब्बा की लटकती हुई पैंट की जेब में हाथ डालकर उनकी फ़ोन डायरी निकाली और पास के पब्लिक फ़ोन की ओर दौड़ा।
फ़ोन की बेल बजे जा रही थी, कोई फ़ोन उठाने का नाम नहीं ले रहा था। दिल में तूफान मचे नदीम को रोना आ रहा था। उसने दुबारा नंबर डायल किया। अब की बार रिंग होते ही फ़ोन उठा लिया गया और तो और फ़ोन उसकी फूफी ने ही उठाया था। "हेलो, कौन?" सामने से आवाज आई "फूफी, मैं नदीम" इतना कहते ही वह रोने लगा। उसके मुँह से केवल अब्बा-अब्बा सुनते ही फूफी की ही बोलती बंद हो गई। आखिरकार नदीम ने ही वह अनचाहा समाचार सुनाया-"फूफी, आज सवेरे अब्बा का इन्तेकाल हुआ है। आप जल्द से जल्द घर पहुँचो।" नदीम के इन शब्दों से जैसे फूफी के सिर पर एटम बम गिर पड़ा था। बस कुछ साहस सिमट कर बोली-"मैं अभी निकल रही हूँ।" इतना कहकर फ़ोन काट दिया।
फूफी एक टक फ़ोन को ही देखे जा रही थी। उसका इस तरह बर्ताव देख उसके पति ने उसे टोका तब वह नुरुल का नाम लेकर जोर-जोरसे रोने लगी-" आज सवेरे मेरा भाई नुरुल मुझे छोड़कर दुनिया से चला गया। अब कौन मुझे आपा-आपा कहेगा, अब मैं किसे राखी बाँधूँगी? इस बीच उसके पति ने चलने की तैयारी कर दी। अपने पुत्र को रिक्शा लाने के लिए भेज दिया।
किसी ने आकर नदीम को बताया की "नदीम भाई तुम्हे अम्मी बुला रही है।" नदीम भीतर जनानखाने की ओर मुड़ा। तब उसकी अम्मी ने पूछा-"नदीम, क्या आपा को तुमने इत्तेला दी है? , वे अभी तक क्यों नहीं पहुँची?" नदीम अपनी फूफी को ही इत्तेला देने भूल गया था, अपने अब्बा की एकलौती चहेती बहन को। नुरुल की आपा नए शहर में रहती थी। आने जाने घंटा भर लग जाता था। नदीम को याद आया की अपनी फूफी के घर फ़ोन है, तब उसने आज पहली बार अब्बा की लटकती हुई पैंट की जेब में हाथ डालकर उनकी फ़ोन डायरी निकाली और पास के पब्लिक फ़ोन की ओर दौड़ा।
फ़ोन की बेल बजे जा रही थी, कोई फ़ोन उठाने का नाम नहीं ले रहा था। दिल में तूफान मचे नदीम को रोना आ रहा था। उसने दुबारा नंबर डायल किया। अब की बार रिंग होते ही फ़ोन उठा लिया गया और तो और फ़ोन उसकी फूफी ने ही उठाया था। "हेलो, कौन?" सामने से आवाज आई "फूफी, मैं नदीम" इतना कहते ही वह रोने लगा। उसके मुँह से केवल अब्बा-अब्बा सुनते ही फूफी की ही बोलती बंद हो गई। आखिरकार नदीम ने ही वह अनचाहा समाचार सुनाया-"फूफी, आज सवेरे अब्बा का इन्तेकाल हुआ है। आप जल्द से जल्द घर पहुँचो।" नदीम के इन शब्दों से जैसे फूफी के सिर पर एटम बम गिर पड़ा था। बस कुछ साहस सिमट कर बोली-"मैं अभी निकल रही हूँ।" इतना कहकर फ़ोन काट दिया।
फूफी एक टक फ़ोन को ही देखे जा रही थी। उसका इस तरह बर्ताव देख उसके पति ने उसे टोका तब वह नुरुल का नाम लेकर जोर-जोरसे रोने लगी-" आज सवेरे मेरा भाई नुरुल मुझे छोड़कर दुनिया से चला गया। अब कौन मुझे आपा-आपा कहेगा, अब मैं किसे राखी बाँधूँगी? इस बीच उसके पति ने चलने की तैयारी कर दी। अपने पुत्र को रिक्शा लाने के लिए भेज दिया।
इधरफूफी की काफी देर प्रतीक्षा करने के पश्चात अंतिम यात्रा की तैयारियाँ शुरू कर दी गई थी। रेहाना बार-बारअपनी ननंद की प्रतीक्षा करने का आग्रह कर रही थी। लोगों को नमाज की जल्दी थी। जो नुरुल के परिवार को जानते थे, वे हैरान थे की कौनसी आपा की प्रतीक्षा की जा रही है। यहाँ तो सभी आ चुके है। खैर, हो सकता है शहर से दूर कहीं रहती हो और उसका आना जाना भी नहीं होगा। मौलवी साहब कहने लगे-"जल्द करो भाई! फजर की नमाज अता कर सकेंगे, देरी हुई तो फिर हमें जोहर की नमाज अता करनी पड़ेगी।"
भीड़ में लोगों के बीच कानाफूसी हो रही थी कि उसी समय एक ऑटो रिक्शा उस भीड़ को चीरता हुआ नुरुल के घर के सामने रुक गया। सबने तर्क लगाया की इस रिक्शा में ही आपा पहुँच चुकी है। रिक्शा के रुकते ही नदीम अपनी फूफी के पास दौड़ा और उनसे लिपट कर रोने लगा। यह दृश्य देखकर सब अवाक् हो गए। उस भीड़ में किसी ने हैरत से पूछा "यह क्या, आपा हिन्दू है?" तभी पास में ही खड़े नुरुल के भाई विकार भाई ने कहा-" यह आपा हिन्दू ही है भाई। नुरुल की मुँह बोली बहन है परन्तु तीस चालीस वर्षों का उनका रिश्ता है। सगे भाई बहन से भी ज्यादा गहरा रिश्ता। रास्ते में खड़े लोगों ने आपा को हैरत से देखते हुए भीतर जाने के लिए रास्ता दिया। सबकी नज़रों में एक कौतुहल साफ़ नजर आ रहा था।
माला आपा को देखते ही रेहाना और जोर-जोर से रोते हुए उनसे लिपट गई। माला ने भी अपने आंसू को थामे रखा था। परन्तु रेहाना के सन्मुख माला की आँखों से भी आंसुओं का सैलाब बहने लगा। दोनों कोई बात किये बिना अपने-अपने आंसुओं को बहाये जा रही थी। वहाँ जमा महिलाओं ने आखिर ननन्द को अलग किया। नुरुल का शव देखते हुए माला ने कहा-"नुरुल भैया, मैं आ गई हूँ। चलिए उठिये क्या आप नाराज हुए है? अब मैं राखी तुम्हारे सिवा किसे बाँधूंगी?"
मौलवी के आग्रह पर माला को भी रेहाना के साथ एक ओर बिठाया। आपा ने भाई के दर्शन करते ही नुरुल के शव को अन्य धार्मिक कार्य करने वहाँ से उठाया गया। माला उस मातम भरे वातावरण में नुरुल की यादों को सिमटे समय के दर्पण में झांकने लगी।
भीड़ में लोगों के बीच कानाफूसी हो रही थी कि उसी समय एक ऑटो रिक्शा उस भीड़ को चीरता हुआ नुरुल के घर के सामने रुक गया। सबने तर्क लगाया की इस रिक्शा में ही आपा पहुँच चुकी है। रिक्शा के रुकते ही नदीम अपनी फूफी के पास दौड़ा और उनसे लिपट कर रोने लगा। यह दृश्य देखकर सब अवाक् हो गए। उस भीड़ में किसी ने हैरत से पूछा "यह क्या, आपा हिन्दू है?" तभी पास में ही खड़े नुरुल के भाई विकार भाई ने कहा-" यह आपा हिन्दू ही है भाई। नुरुल की मुँह बोली बहन है परन्तु तीस चालीस वर्षों का उनका रिश्ता है। सगे भाई बहन से भी ज्यादा गहरा रिश्ता। रास्ते में खड़े लोगों ने आपा को हैरत से देखते हुए भीतर जाने के लिए रास्ता दिया। सबकी नज़रों में एक कौतुहल साफ़ नजर आ रहा था।
माला आपा को देखते ही रेहाना और जोर-जोर से रोते हुए उनसे लिपट गई। माला ने भी अपने आंसू को थामे रखा था। परन्तु रेहाना के सन्मुख माला की आँखों से भी आंसुओं का सैलाब बहने लगा। दोनों कोई बात किये बिना अपने-अपने आंसुओं को बहाये जा रही थी। वहाँ जमा महिलाओं ने आखिर ननन्द को अलग किया। नुरुल का शव देखते हुए माला ने कहा-"नुरुल भैया, मैं आ गई हूँ। चलिए उठिये क्या आप नाराज हुए है? अब मैं राखी तुम्हारे सिवा किसे बाँधूंगी?"
मौलवी के आग्रह पर माला को भी रेहाना के साथ एक ओर बिठाया। आपा ने भाई के दर्शन करते ही नुरुल के शव को अन्य धार्मिक कार्य करने वहाँ से उठाया गया। माला उस मातम भरे वातावरण में नुरुल की यादों को सिमटे समय के दर्पण में झांकने लगी।
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