मध्यकालीन संस्कृति - एक नजर 

'' महात्मा बुद्ध के शब्दों में बौद्धमत मध्यम पथ है , अर्थात न तो भोगविलास में ही आसक्त रहना चाहिए और न अनिद्रा , अनाहार , तपस्या आदि कठोर कष्ट साधनाओ के द्वारा आत्मा को क्लेश देना चाहिए।  इन दोनों मार्गों के बीच में रहकर चलना चाहिए।  '' उक्ताशय के उद्गार श्री गौरीशंकर हिराचंद ओझा जी ने अपने व्याख्यान में दिए थे।   
           तत्कालीन सरकार ने हिंदी एवं उर्दू भाषाओँ की उन्नति के लिए तब ' हिंदुस्तानी अकादमी ' की स्थापना की थी।  उसी अकादमी ने श्री गौरीशंकर जी को 600 ई से 1200 ई तक राजपूत काल की भारतीय संस्कृति पर तीन व्याख्यान देने के लिए सन्मानित किया। यहीं तीन व्याख्यान हमें ' मध्यकालीन भारतीय संस्कृति ' पुस्तक के रूप में उपलब्ध हुए है।  
            भारतवर्ष का प्राचीन धर्म वैदिक था , जिसमे यज्ञ की प्रधानता थी और बड़े बड़े यज्ञों में पशु हिंसा भी होती थी।  मांस - भक्षण का प्रचार भी बड़ा हुआ था।  जैनों और बुद्धों के जीव दया सम्बन्धी सिद्धांत पहले से ही विद्यमान थे , परन्तु उनका लोगों पर प्रभाव न था।  शाक्य वंशी राजकुमार गौतम अर्थात महात्मा बुद्ध ने बौद्धधर्म के प्रचार का बीड़ा उठाया तब से  इस धर्म का प्रचार बढ़ता गया और मौर्यवंशी सम्राट अशोक ने उसे राजधर्म बनाकर अपनी अज्ञा से यज्ञादि में पशु हिंसा पर रोक लगा दी। 
            ई 600 से 1200 ई तक भारत वर्ष में मुख्यता: तीन धर्म थे , जिनमे वैदिक धर्म , बौद्धधर्म तथा जैन धर्म है।  यह काल भारतीय इतिहास में बहुत अधिक महत्व का है।  वैसे इस काल की धार्मिक , सामाजिक एवं राजनितिक अवस्था बहुत उन्नत थी।  धार्मिक दृष्टी से तत्कालीन दशा आस्चर्यकारक थी।  उस समय बौद्ध , जैन और हिन्दू धर्म तथा उनके अनेक धार्मिक संप्रदाय अपनी अपनी उन्नति कर रहे थे। 
           उसी दौरान भारत वर्ष में भिन्न भिन्न वंश अपना राज्य फैला रहे थे।  दक्षिण में सोलंकी राजाओं का अधिक प्रभाव था।  उत्तर में बैस , पाल , सेन आदि वंश उन्नति कर रहे थे।  मुसलमान भी सिंध में आ चुके थे।  ग्यारहवीं - बारहवीं सदी में मुसलमानो का प्रवेश भारत में विशेष रूप से माना जाता है।  इस तरह भिन्न भिन्न राजवंशों के विकास एवं पतन आदि अनेक राजनितिक परिवर्तनों के कारण इस काल का बहुत महत्व है। 
           यूरोप और एशिया के देशों के साथ भारतीय व्यापार बहुत बढ़ा हुआ था।  भारत केवल कृषि प्रधान देश ही नहीं बल्कि व्यवसाय प्रधान देश भी था।  कारण इस काल में कृषि , व्यापार और व्यवसाय यह तीनो  भी उन्नत होने के कारण यह काल आर्थिक दृष्टी से भी महत्वपूर्ण था। 
           उस काल में ज्ञान सम्बन्धी विकास भी कम नहीं था तभी तो काव्य , नाटक , कथाएं आदि साहित्य विषयक ग्रंथों के आलावा गणित , ज्योतिष , आयुर्वेदिक एवं कला कौशल में बहुत उन्नति हुई थी।  सभी विषयों की तरफ भारतीय विद्वानों का पूरा ध्यान था।  परन्तु प्राचीन काल के साहित्य से केवल ललित साहित्य , काव्य , नाटक , कथा , उपन्यास अलंकार आदि विषय ही अभिप्रेत थे।  
            मेकइन इस काल में संस्कृत का साहित्य सबसे अधिक सम्पन्न था।  जबकि प्राकृत भाषा का सर्वसाधारण में प्रचार था इसी कारण यही बोलचाल की भाषा थी।  प्राकृत भाषा का भी साहित्य बहुत उन्नत था। परन्तु उस समय संस्कृत भाषा को राजभाषा का दर्जा प्राप्त था।  सारा राज कार्य संस्कृत में ही होता था।  इसके अतिरिक्त शिलालेख , ताम्र पत्र आदि भी इसी संस्कृत में लिखे जाते थे।  तभी तो संस्कृत संपूर्ण भारतवर्ष के विद्वानों की भाष थी।  उस काल में संस्कृत भाषा का प्रचार प्रायः सम्पूर्ण भारतवर्ष में था। 
            श्री गौरीशंकर जी ने व्याख्यान रूपी इस पुस्तक में यह भी बताया है कि उस काल में साहित्य और विज्ञान की अत्यंत उन्नति होते हुए भी साधारण जनता बहुत वहमी थी।  लोक भिन्न भिन्न जादू - टोना तथा बहुत - प्रेत आदि में विश्वास करते थे।  जादू - टोना की प्रथा अत्यंत प्राचीन काल से भारत वर्ष में विद्यमान थी।  अथर्ववेद में अभिसार ,सम्मोहन , पीडन , वशीकरण , मारण आदि का वर्णन मिलता है। राजा के पुरोहित अथर्ववेद के विद्वान होते थे।  शत्रुओं को नष्ट करने के लिए राजा जादू और टोनो का भी प्रयोग कराते थे। 
             वे लिखते है प्राचीन काल से ही  भारतीयों का चरित्र बहुत उज्व्वल और प्रशंसनीय रहा है।  वीरता में भारतीय एशिया वासियों से बढ़ें चढ़ें थे एवं गंभीर और श्रमशील थे। 
              श्री गौरीशंकर जी ने व्याख्यान के विषयों को तीन भागों में विभक्त किया है।  प्रथम व्याख्यान में तत्कालीन धर्मों जैसे बौद्ध, जैन तथा हिन्दू के भिन्न भिन्न सम्प्रदायों के विकास और पतन इसके आलावा उस समय की सामाजिक स्थिति ,वर्णश्रम व्यवस्था , दासप्रथा ,रहन - सहन , रीती रिवाज पर प्रकश डाला गया है। 
               दूसरे व्याख्यान में उन्होंने भारतीय साहित्य , अर्थात कोष , व्याकरण , दर्शन , गणित , ज्योतिष आदि विषयों पर तत्कालीन स्थिति पर विचार किया गया है।  तीसरे व्याख्यान में उस समय की शासन पद्धति , ग्रामपंचायतों का निर्माण और उनके अधिकार , सैनिक व्यवस्था तथा न्यायादि पर भरपूर प्रकाश डाला है। श्री गौरीशंकर जी को उनके कार्य के लिए ' रायबहादुर महामहोपाध्याय ' की उपाधि से सन्मानित किया गया था।